मसीही शायरी- “मसीहा की मुहब्बत”

गुनाहों के अँधेरे की भी क्या बात थी
पर मसीहा के सामने क्या बिसात थी
मेरी ज़िंदगी तो थी वीरान वीरान सी
दिल में काले गम की अँधेरी रात थी
बस घेरे थे निराशाओं के बादल मुझे
यूँ हर तरफ बस दर्द की सौगात थी

मैंने ढूँढा ना उसको, वो ही खुद आया
ये उसकी रहमत और निराली बात थी
मैं अपनी ताकत से ढूंढ लूं क्या उसको
मुझ नाचीज की ये कहाँ से औकात थी

मसीहा मिले तो महसूस हुआ मुझे भी
जैसे हर ओर खुशियों की बरसात थी
मिट चुका था मेरा अकेलापन भी पूरा
अपनाने को विश्वासियों की जमात थी

उठते हैं हाथ उसकी इबादत में ही
वरना इन हाथों में तो खुराफात थी
बदलता है बस मसीहा का करिश्मा
वरना यूँ किसमें इतनी करामात थी

Published by

Hasti

A student and teacher of religions and philosophies. A follower of Lord Jesus Christ

2 thoughts on “मसीही शायरी- “मसीहा की मुहब्बत””

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